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वक्तृत्वकला के बीज
रहती हैं, उसी प्रकार सुन्दर काव्य में दुष्टव्यक्ति दोष ही
देखता है। ४. कर्णामृतं काम्यरसं विहाय, दोषेषु यत्नो सुमहान खलस्य ।
अवेक्षते केलिवनं प्रविष्ट, क्रमेलम्कण्टकजालमेव ।। कानों में अमृततुल्य काव्यरस को न सेकर दुष्टपुरुष दोष देखने का ही महान् प्रयत्न करते हैं । जैसे—केलियन में घुसकर
भी ऊंट कांटोंवाले वृक्ष की ही खोज करता है । ५. जानाति हि पुनः सम्यक, कबिरेच कवेः श्रमम् ।
कविता करने में कवियों को कितना परिश्रम करना पड़ता है, वह कवि ही जानता है।