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उत्सर्ग-अपवाद
१. जावइया उस्सग्गा, ताबड्या चेव हुति अववाया। जाव इया अववाया, उस्सगा तत्तिया चेव ।।
महतत्कल्पमाष्य ३२२ जितने उत्सर्ग (निषेधवचन) हैं, उतने ही उनके अपवाद (विधि-वचन) भी हैं। और जितने अपनाद हैं, उतने उत्सर्ग
भी हैं। २. उस्सग्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्वाणि संथरे मुणिणो । कारणजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पति ।।
-निशीथमाय ५२४५ तथा बृहत्फल्पभाष्य ३३२७ उत्सर्गमार्ग में समर्थ मुनि को जिन बातों का निषेध किया गया है, विशोष कारण होने पर अपवादमार्ग में वे सब
कर्तव्य रूप में विहित हैं। ३. णवि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्ध बावि जिणवरिंदेहि । एसा तेसि आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ।।
-निशीयभाष्य ५२४८ तथा बृहत्कल्पभाष्य ३३३० जिनेश्वरदेव ने न किसी कार्य की एकान्त अनुज्ञा दी है और न एकान्त निषेध ही किया है। उनकी आज्ञा यही है कि साधक जो भी करे, बहू मच्चाई, प्रामाणिकता के साथ करे ।