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वक्तृत्वकला के बीज
गौत के स्वर सात होते हैं-(१) षड्ज (२) ऋषभ (३) गान्धार (४) मध्यम (५) पंचम (६) धैवल (७) निषध । प्राम (स्वर समुह) लीन होते हैं—(१) षड्जग्राम (२) मध्यमग्राम (३) निषादग्राम । स्वर का आरोह–अवरोह-द्वारा मम्यक् प्रकार से मूछित हो जाना पूछना कहलाती है । उग़के २१ भेद हैं । ताल उनचास हैं । मात्राएँ तीन हैं- (१) ह्रस्व (२) धीर्घ (३) प्लुत । लय तीन होते हैं । (गीत-नृत्य-वाद्य की एकतानता रूप साम्पभाष का नाम लय है) यति निराम-स्थान) तौन हैं । आस्य हहै । रस श्रृंगार आदि नौ हैं। रागः भैरव, कौशिकी, हिण्डोल, दीपक, श्री, और मेघ आदि ३६ हैं । माय ४४ हैं ।
इस प्रकार नाटयाचार्य भरत ने गीत के १८५ अंग कहे हैं । ७. बाह्यार्थालम्बनो यस्तु, विकारो मानसो भवेत् ।
स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षों रसः स्मृतः ।। वाद्यवस्तुओं के सहारे से जो मन में विकार उत्पन्न होते हैं, उन्हें भाव कहते हैं। भाव जब उत्कर्ष को प्राप्त कर लेते हैं
तो वे रस कहे जाते हैं। ८. रस नो हैं--(१) बीर, (२) शृङ्गार, (३) अद्भुत
(४) रौद्र, (५) ब्रीड़ा, (६) बीभत्स, (५) हास्य, (4) करुण, (:) प्रशान्त ।
.. अनुयोगहार गाया ६३ से ५१, सूत्र १२६ (घ। नत्य-कला
अफ्रोका में आइवरो-कोस्ट को आदिम जाति, लोबो, में नर्तक एक हाथ में एक कटार और दूसरे हाथ में एक खंजर लेकर इन तीक्ष्ण हथियारों की नोक पर एक