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वक्तृत्वकला के बीज
गणधर, प्रत्येकबुद्धि. श्रुतकेवली एवं अभिन्नदशपूर्वधारी का
रचा हुआ प्रन्थ 'सूत्र' कहलाता है।' ६. अस्थधरो तु पमाणं, तित्थगरमुहग्गतो तु सो जम्हा ।
-निशीषभाष्य २२ सूत्रधर (शब्दपाठी) की अपेक्षा अर्धधर (सूत्र रहस्य का ज्ञाता) को प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि अर्थ साक्षात् तीर्थंकरों की
वाणी से निःसृत है। ७. अत्थेण य बंजिज्जइ, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं ।
-व्यवहारमाष्य ४।१०१ सूत्र (मूल शब्दपाठ) (व्याख्या तेही पाक नोता है अत: अर्थ सुत्र से बलवान (महत्त्वपूर्ण) है।
१ सूत्र के तीन अर्य-सुत्त-जिससे अर्थ की सूचना की जाए। मुत्र
अर्थात् सुप्त-सोए हुए की तरह, इसे टीका-भाष्यादि द्वारा जगाया जाता है । सूत्र अर्थात् धागा जिसमें अर्धरत्न पिरोये जाएँ। मूत्र के तीन भेद- संज्ञासूत्र. कारकमूत्र तथा प्रकरणसूत्र । संज्ञासूत्र में अर्थ का सामान्य निर्देश होता है। जैसे "जे छेए से सागारियं (मेहुणं) न सेवेइ" । कारकसूत्र में क्रियाकलाप का वर्णन होता है । जैसे---"अहाकम्म भुजमाणे आउवज्जाओ सत्त कम्मपगडोओ बंधति" | प्रकरणसूत्र में नमिप्रव्रज्या एवं केशी-गौतम आदिवत् प्रसंग वर्णित होते हैं।