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________________ ૨૪. वक्तृत्वकला के बीज विहरति । भवइ [........तणं भगवंतीवासीचंदणसमाणकध्या समहुकणा समसुह- दुक्खा इहलोग परलोग अप्प डिबद्धा संसारपारगामो कम्मणिग्धायणट्टाए अभुलिया औपपातिक समवसरणाधिकार श्रमण भगवान् महावीर के बहुत से अनगार भगवंत ईर्यासमितियुक्त हैं, ममल्ल रहित हैं, अविचन हैं, हिम्नग्रन्थ है, धन्नोत हैं, निरुपëप हैं एवं इक्कीस उपमाओं से उपमित हैं । १ बे कांस्यपात्रवत् स्नेहमुक्त हैं २ ख के समान उज्ज्वल (रामादिरंगहित) हैं, ३ जीव के समान अप्रतिहत - गतिवाले हैं, ४ अन्य कुधातुओं के मिश्रण से रहित सोने के समान जातरूप लिए हुए चारित्र को निरतिचार रखनेवाले हैं. ५ ( दर्पणपड़ के समान निर्मल भाववाले हैं), कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय हैं, ६ कमलगत्रवत् निर्लेप हैं, ७ आकाश के समान निरालंबन हैं. वायु के समान निरालय ( अप्रतिबद्धविहारी ) हैं २ चन्द्रमावत् सौम्यकान्तिवाले हैं, १० सूर्य के समान दीप्ततेजवाले हैं, ११ सागरवत् गंभीर है. १२ पक्षी के समान पुर्णतः विप्रमुक्त है, १३ गेरुपर्वत के समान बोल हैं, १४ शरदऋतु के जल के समान शुद्धहृदयवाले हैं। १५ गेंडे के सींग के समान एकजात अर्थात् रामादिभावरहित एकाकी हैं, १६ भारण्डपक्षी के समान अप्रमत्त हैं. १७ हाथी के समान शूर कामादि भावशत्रुओं को जीतने में समर्थ हैं, वृषभ के समान जातस्याम धैर्यवान है, १६ सिंह के समान दुध परीषादिमुगों से नहीं हारनेवाले हैं, २० पृथ्वी के समान शीत-उष्ण आदि सभी स्पर्धा को सहन करनेवाले हैं, २१ वृत आदि से अच्छी तरह हवन की हुई अग्नि के समान (ज्ञान और तपरूप) तेज से जाज्वल्यमान हैं । जनके कहीं प्रतिबन्ध नहीं होता। -
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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