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________________ ८२ वक्तृत्वकला के बीज -तंतिरोधउपनिषद् ३।७ ७. अन्नं न निन्द्यात् । अन्न की निन्दा मत करो । 5. अन्नेन हींद सर्व गृहीतम् तस्मात् यावन्तो नोऽशनमश्नन्ति - शतपथब्राह्मण ४।६।५।४ तेनः सर्वे गृहोता भवन्ति । P अत्र ने सब को पकड़ रखा है अतः जो भी हमारा भोजन करता है, वही हमारा हो जाता है । · ६. अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात सर्वोपधमुच्यते । अन्नाद भूतानि जागते जातान्यन वर्धन्ते । ---तंत्तरीयउपनिषद् ८२ प्राणि जगत में अन्न ही मुख्य है । अन्न को समग्र रोगों की औषध कहा है, ( क्योंकि सब औषधियों का सार अन्न में है) अन्त से ही प्राणी पैदा होते हैं और अन्न से ही बढ़ते हैं । १०. अन्नं बहु कुर्वीत तद व्रतम् । -तिरोधउपनिषद् ३१२ अन्न अधिकाधिक उपजाना बढ़ाना चाहिए, यह एक व्रत (राष्ट्रीयप्रण ) है ११. सर्वसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान् यतस्तन्निबन्धनंम् जीवित सकलप्रयासञ्च । - नीतिवाक्यामृत ८११ सभी संग्रहों में चान्य का संग्रह बड़ा है, क्योकि जीवन तथा सारे प्रयासों का कारण धान्य ही हैं । १२. अत्र मुक्ता र घी जुक्ता । - राजस्थानी कहावत १३. हमारे बड़े-बूढ़े कहा करते थे कि अनाज महंगा और रुपया सस्ता हो, वह जमाना 'खराब' और अनाज सस्ता और
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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