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________________ पांचवां भाग : पहला कोष्ठक ५३ चना करता है, वह बड़े दोषों को कैसे छिपा सकता है - यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए केस छोटे लोटे तोषों दीपा करना । ६ नं (प्रच्छन ) - लज्जालुता का प्रदर्शन करते हुए प्रच्छन्नस्थान में आचार्य भी न सुन सके ऐसी आवाज से आलोचना करना । सद्दालय (शब्दरकुल ) – दूसरों को सुनाने के लिए जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना । P — ८ बहुजण ( बहुजन ) - एक ही दोष की बहुत से गुरुओं के पास आलोचना करना, प्रायः प्रशंसार्थी होकर ऐसा किया जाता है। £ अध्वत्त (अव्यक्त)- किस अतिचार का क्या प्रायश्चित दिया जाता है, इस बात का जिसे ज्ञान नहीं हो, ऐसे अगीतार्थ साधु के पास आलोचना करना | १० तस्सेवी ( तत्सेधी) - जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करनेवाले आचार्यादि के पास, यह सोचते हुए आलोचना करना कि स्वयं दोषी होने के कारण उलाहना न देगा और प्रायश्चित्त भी कम देगा। २. प्रतिसेवना के दस प्रकार हैं दसवा पविणा पण्णशा तं जहादप्पपमाद-ऽणाभोगे, आउरे आवतीति य, सकिने सहसक्कारे, भव-प्ओसाय वीमंसा । - भगवती २५७ तथा स्थानाङ्ग ०१७३३ पाया दोषों के सेवन से होनेवाली संयम की विराधना को प्रतिमेघना कहते है, यह दर्प आदि दस कारणों से होती है अतः दस प्रकार की कही गई है । १. वर्ष प्रति सेचना -- अहंकार से होने वाली संयम की
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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