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आलोचना के दोष १. दस आलोयगादोस पत्ता , तं जहा
आकंग पित्ता-भगा मामाइना न दिदै वायरं न गृहमं वा । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजण अव्वत्त तम्सेवी ।
__ -भगवती २५७।७६५ तथा स्थानाङ्ग १०७३३ जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधु के सामने निवेदन करके उसके लिए उचित प्रायश्चित्त लेना 'आलोचना' है । आलोचना का शब्दार्थ है, अपने दोषों को अच्छी तरह देखना । आलोचना के दस दोष हैं अर्शीत् आलोचना करते समय दस प्रकार का दोष लगता है यथाआकंपयित्ता-प्रसन्न होने पर गुरु श्रोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, यह मोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास
दोपों की आलोचना करना । २ अणुमाणइत्ता—पहले छोटे से दोष की आलोचना करके, आचार्य
कितना-क दण्ड देते हैं, यह अनुमान लगाकर फिर आलोचना करना अथवा प्रायश्चित्त के भेदों को पूछकर दण्ड का अनुमान
लगा लेना एवं फिर आलोचना करना। ३ विष्ट (ट)-जिरा दोष को आनायं आदि ने देख लिया हो,
उमी की आलोचना करना। ४ बायरं (स्थूल)-मिर्फ बड़े बड़े दोषों की आलोचना करना । ५ सुगम (सूक्ष्म)-जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की भी आलो
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