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________________ वक्तृत्वकला के बीज (३०) लज्माशील हो, अघांत् अनुवित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करे । (३१) दयानाम् हो। (३२) मोम्य हो-चहर पर शान्ति और प्रभन्नता सकती हो । (३३) परोपकार करने में उद्यत रहे । दसरों की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे न हटे । (३४) कामन्त्रोधादि आन्तरिक छह वाओं को त्यागने में उद्यत हो । (३५) इन्द्रियों को अपने वश में रखे । । - .. -.. १. जैसे बोज बान से पहले क्षेत्र-शुद्धि की जाती है। ऐसा न किया जाए तो यथेष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती तथा दीवार खड़ी करने से पहले नीत मजबूत कर ली जाती है । नींव मजबूत न की जाय तो दीवार के किसी भी समय गिरजाने का खतरा रहता है। इसी प्रकार गृहन्थधम-श्रावकत्रत को अंगीकार करने रो पहले घावश्यक जीवन-शुद्धि कार लेना जनित है । यहाँ जो बातें बसला: गई हैं, उन्हें ग्रहस्थ-धर्म की नींव या आधार-भूमि समझना चाहिए । इस आधार-भूमि पर गृहस्थधर्म का जो भव्यप्रासाद खड़ा होता है, वह स्थायी होता है । उसके गिरने का भय नहीं रहता। इन्हें मार्गानमारी के 2५ गुण कहते हैं। इनमें कई गुण ऐसे हैं, जो केवल जोकिकणीवन से सम्बन्ध रखते हैं। उन्हें गृहस्थ-धर्म का आधार बलसाने का अर्थ यह है कि वास्तव में जीवन एक
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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