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वक्तृत्वकला के बीज
जैसे हैं', परवादियों का प्रमर्दन करनेवाले हैं। हादशाङ्ग के जाता है, समस्त गणिपिटक के धारक है ।........जिन न होकर भी जिन के समान हैं और जिनके तुल्य अवितथ-सत्यवाणी वागरते हुए संयम-तप से आत्मा को भावित करते हुए विहार कररहे हैं।
सु-पृथ्वी, त्रिक-तीन, आपण-दुवाम' अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य, पातालरूप गोनों पृथियों में उपलब्ध होनेवाली सब वस्तुएं जिस दुकान में मिल सकती हों, उस दुकान को कुत्रिकापण कहते हैं । पुराने जमाने में ऐसी देवाधिष्ठित दुकानें बड़े शहरों में हुआ करती थीं । वहाँ स्थाबरों को कुत्रिकापण की उपमा देने का मतलब यह है कि उनके पास कुत्रिकापण की तरह हर एक प्रकार के ज्ञान का अद्भुत संग्रह होता है।