________________
चौथा भाग : चौथा कोष्ठक
२५६
प्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयपहाणा........सुसामण्णरया दंता इणमेव णिगथं पावयणं पुरओ काउंविहरति । तेसि णं भगवंताणं आयावायाविविदिता भवति,परवाया विदिता भवंति,आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तभायंगा अच्छिद्दपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तियावणभूया परवादियपमद्दणा दुवालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा....... ........अजिणा जिणसंकासा, जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।
श्वमण भगवान् महावीर के अंतेवासी बहुत से स्थविर भगवंत जातिसंपन्न हैं तथा कुल, बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र लज्जा, एवं लापन संपन्न हैं। ओजस्वी, तेजस्वी. वर्चस्वी और यशस्वी हैं एवं क्रोध मान आदि को जीतनेवाले हैं । वे जीविताशा और मरणभय से निप्रयुक्त हैं । ब्रत,गृण,कार ए,चरण,निग्रह, निश्चय, आजव, मार्दव, लापथ, क्षःन्ति, मुक्ति, विद्या, मात्र, वेद, ब्रह्म नप, नियम, सत्य और और में प्रधान-श्रेष्ठ हैं ।.... वे श्रमणत्व में रक्त हैं, दान्त हैं और इस निग्रंथप्रवचन' को आगे करके विचर रहे हैं । जिन्हें आत्मवाद (स्वसिद्धान्त) और परवाद (अन्यमत के सिद्धान्त) विदित है आत्मवाद को हृदय में मावर नालबन' में मस्त हाधी की तरह ज्ञानवन में रमण कर रहे हैं, जटिल से जटिल प्रश्नों का सरलता से उत्तर देने में समर्थ है। ये रत्नकरण्ड के समान हैं, कुचिकारण