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________________ पांचवा भाग दूसरा कोष्टक १२३ तो आहार को पर देना चाहिए। चाहे मुंह में हो, हाथों में हो या पात्र में हो। न परटनेवाले साधु-साध्वी को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है । - निशीय १०।३१-३२ ८. जे भिक्खु रा भोवतास्स वन्नं बदई बदनं वा साइज्जई । ११॥७६ जो साधु रात्रिभोजन की प्रशंसा करें एवं प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करे तो उसे मासिक-प्रायश्चित आता है । ६. कि जैनः रजनीभोजनं भजनीयम् ! क्या जैनलोगों को रात्रिभोजन करना चाहिए ? नहीं नहीं, कदापि नहीं । १०. नोदकमपि पातव्यं, रात्रौ नित्यं युधिष्ठिर ! तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिनाम् || 1 है युधिष्ठर ? रात के समय पानी भी नहीं पीना चाहिए, फिर भोजन का तो बहना ही क्या ? यह बात साधुओं को और विवेकी गृहस्थों को विशेष ध्यान देने योग्य है । ११. मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अरतं गतं दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ? अस्तं गते दिवानाथे, आप रुधिरमुच्यते । अन्नं माससमं प्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ।। रक्सीभवन्ति तोमानि अनानि शतानि च । रात्रौ भांजनसक्तस्य ग्रासे तन्मांसभक्षणात् ॥
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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