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________________ २४ गमका तीन ४. से सुयं च मे अज्झरिययं च मे, बंध-पमोस्रो तुज्झ अज्झत्थेव । --आचारसंग-शर मैंने सुना है और अनुभव भी किया है कि बन्धन की मुक्ति आरमा के अन्दर ही है। ५. उद्धरेदात्मनात्मान, नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धु-रात्मैव रिपुरारमनः ॥५॥ बंधुरात्मात्मनस्तस्य, येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे, बर्रातात्मैव शत्रुवत् ॥६॥ -गीता-म. आत्मसंयम द्वारा आत्मा का उद्धार करो। कुत्सित प्रवृत्तियों द्वारा आत्मा को विवाद-दुःख मत पहुँचाओ। आत्मा ही आत्मा को बन्धु है और आत्मा ही आत्मा की शत्रु है ॥५॥ जिसने आत्मा को अर्थात मन-इन्द्रियों को आत्म-संयम द्वारा जीत लिया है, उसके लिए उसकी आत्मा मन्षु है और जिसके मन-इन्द्रियो अपने वश में नहीं है, उसके लिए उसकी आत्मा शन है ॥६॥ ६. एगप्पा अजिए सत्त । -सराध्ययम-२०१८ स्वयं की अविजित-असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्र है। ७. न त अरी कंठछिता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । --उत्तरम्पयम-२०४८ गर्दन काटनेवाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हा दुराचार में प्रवृत्त अपनी आत्मा कर सकती है।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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