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वक्तृत्वकला के बीज ४. अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्त मि होइ पडिसेवी। एएहिं कारणेहि, आसुरियं भावणं कुणइ ।।२६७।।
- खसराध्ययन ३६ जो साधु निरन्तर रोष का प्रसार करता है एवं निमित्त का सेवन करता है, यह आसुरी-भावना का माचरण करता है यानी मरकर असुरकुमार देवता बनता है। (यह वर्णन स्थानांग
४१४ में भी है) ५. तवणे बयतेणे, रूबतेणे य जे नरे। आयार-भावतेणे य कुब्वइ देवकिविसं ।।
-वशवकालिक ५३२१४६ जो मुनि तपचोर, वचनचोर, रूपचोर, आचारचौर एवं भाव का चोर है, वह किल्विषी देवता में उत्पन्न होता है । जैसे-कोई पूछता है कि महाराज ! आप लोगों में एक तपस्वी साधु सुने थे, क्या वे आप ही हैं ? ऐसे पूछने पर "साधुसपस्वी होते ही हैं। इस प्रकार कपटपूर्ण उत्तर दे, वह तपचोर कहलाता है। ऐसे ही वचनचोर आदि भी समझ लेना चाहिए।