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________________ ३३६ वक्तृत्वकला के बीज ४. अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्त मि होइ पडिसेवी। एएहिं कारणेहि, आसुरियं भावणं कुणइ ।।२६७।। - खसराध्ययन ३६ जो साधु निरन्तर रोष का प्रसार करता है एवं निमित्त का सेवन करता है, यह आसुरी-भावना का माचरण करता है यानी मरकर असुरकुमार देवता बनता है। (यह वर्णन स्थानांग ४१४ में भी है) ५. तवणे बयतेणे, रूबतेणे य जे नरे। आयार-भावतेणे य कुब्वइ देवकिविसं ।। -वशवकालिक ५३२१४६ जो मुनि तपचोर, वचनचोर, रूपचोर, आचारचौर एवं भाव का चोर है, वह किल्विषी देवता में उत्पन्न होता है । जैसे-कोई पूछता है कि महाराज ! आप लोगों में एक तपस्वी साधु सुने थे, क्या वे आप ही हैं ? ऐसे पूछने पर "साधुसपस्वी होते ही हैं। इस प्रकार कपटपूर्ण उत्तर दे, वह तपचोर कहलाता है। ऐसे ही वचनचोर आदि भी समझ लेना चाहिए।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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