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वक्तृत्वकला के बीज
७. जीवियास-मरणभयविष्पमुक्का ।
--औपपातिक समवसरण अधिकार तथा भगवती चार साधु जीने की आशा और मरने के भय से विनमुदत होते हैं । १. जात्यैबेते परिहितविधौ साधवो वद्धश्नाः ।
--पार्श्वनायचरित्र संत लोग स्वभाव से ही परहित करने के लिए तत्पर रहते हैं। ६. थेयः कुर्वन्ति भूतानां, साधबो दुस्त्यजासुभिः ।
–श्रीमदभागवत ८।२०१७ साधृजन अपने दुस्त्यज प्राणों को देकर भी प्राणियों का कल्याण
मारते हैं। १०. साधनां च परोपकार-करणे नोपाध्यपेक्ष मनः ।
परोपकार करने के समय साधुओं का मन कष्टों की परवाह
नहीं करता। ११. यथा चित्त तथा बाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया । चित्ते वाचि क्रियायां च, साधनामेकरूपता।
-सुभाषितरत्न भाण्डागार जैसा मन होता है, वैसा ही वचन बोलते हैं और वचन के अनुसार ही क्रिया करते हैं, क्योंकि साधुओं के मन-वचन
मिया में एकरूपता होती है । १२, युगान्ते प्रचलेद मेरुः, कल्पान्ते सप्त सागरा: । साधवः प्रतिपन्नार्थाद, न चलन्ति कदाचन ।
... - चाणक्य' १३३१६ युग के अन्दा में भेरु और वल्प के अन्त में सातों समुद्र चल जाते हैं. फिन्तु मन्त पुरुष स्वीकृत-सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं होते।