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________________ पौधा भाग : चौथा कोष्ठक २४१ १३. तप्यते लोकतापेन, साधवः प्रायशो जनाः । परमाराधनं हजि, पुरुषस्थाखिलात्मन: । -..श्रीमद्भागवत ८1७७४ साधुजन प्रायः संसार के ताप से संतप्त-खिन्न रहते हैं। उनके लिए यही विश्वपावन भगवान की उत्कृष्ट-आराधना है । १४. या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागति संयमी। यस्यां जागति भूतानि, सा निला पश्यतो मुनेः । -गीता २।६६ जो आत्मविषयवा-बुद्धि संसारी जीव। के के लिए रात है, उसमें संयमी साधु जागता है-आत्म-साक्षात् करता है । जिस शब्दादि विषयों में लगी हुई बुद्धि में संसारी जीव जागते हैं सावधान रहते हैं, वह आत्मार्थिमुनि के लिए गत है । १५. चक्खुमास्स यथा अन्धो, सोतका बधिरो यथा । -थेरगामा ८५०१ साधवा चक्षुष्मान होने पर भी अन्धे की भांति रहे, श्रोत्रवान् होने पर भी बधिर को भांति आचरण करे ! १६. साधबो हृदयं मह्य, साधूनां हृदयं स्वहम् । मदन्यत्त न जानन्ति, नाहं तेभ्यो मनागपि । ...श्रीमद्भागवत है।४।६८ 'भगवान कहते हैं फि माघ्र मेरे हृदय है और मैं उनका हृदय हूँ । ने मेरे सिवाय किसी को नहीं जानते और मैं उनके सिवा किसी को नहीं जानता। - १७. पूजा-मान-बड़ाइयां. आदर मांगे मन । राम गहे सब परिहरे, सोही साधुजन ।। —दाजी
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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