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________________ २६५ वक्तृत्वकला के बीष ८. निठाणं रसनिज्जूदं, भद्दगं पावगं ति वा। पुट्टो वा वि अपुट्ठो वा, लाभालाभं न निहिसे। ___ - यशवकालिक ८।२२ आहार सरल मिला या नीरस मिला, अच्छा मिला या बुरा मिला तथा मिला या नही मिला । साधु को यह आहार सम्बन्धी बात पूछने पर या बिना पूछे गृहस्थ के आगे नहीं कहनी चाहिए। कालेण निक्खमे भिक्ख, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विबज्जित्ता, काले कालं समायरे ।।४।। अकाले चरसी भिमद, कालं न पहिलेइसि ! अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ - दशवकालिक ॥१ साधु भोजन बनने के समय गोचरी जाए एवं बखतसर वापिस आ जाए 1 अकाल का त्याग करके सारा काम यथासमय करे । हे मुने ! यदि तु असमय भिक्षा के लिए जायेगा एवं समय का ध्यान न रखेगा तो आहार आदि न मिलने से दु:खी होगा एवं द्वेषवंश गांव के लोगों की निन्दा करेगा। अप्पे सिया भोयणजाए, बहुउज्झियम्मिए । दितिय पडियाइक्खे, न मे कप्पई तारिस । -वभावकालिक ५।१७४ (सीताफल-दक्ष खण्ड आदि) जिन फलों में खाने योग्य वस्तु थोड़ी हो और फेंकने लायक अधिक हो, ऐसे फल दातार देना चाहे दो साधु कह कि ऐसी वस्तु मुझे नहीं कल्पत्ती । ११. विणएण पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी। इरियावाहियमायाय, आगओ य पडिक्कमे । -वशकालिक शE
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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