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________________ २६ १. दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्ण घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनदचन्दनं चारुगन्धम् । छिन्नंन्नि पुनरपि पुनः स्वाददं नेक्ष खण्ड, प्राणान्तेऽपि प्रकृति-विकृतिर्जायते नोत्समानाम् ॥ उरुष का स्वभाव बार-बार जलाने पर सोना अधिक चमकीला बनता है, बार-बार घिसने पर चन्दन अधिक सुगन्ध फैलाता है। बार-बार काटने पर इक्षुखण्ड अधिक मीठा स्वाद देता है-तत्व यह है कि प्राणान्त कष्ट में भी उत्तमपुरुषों की प्रकृति में विकार नहीं आता । २. गव्हां चा आटा आणी कुपव्या चा बेटा | सताने पर भी उत्तम उत्तम ही फल देता है | ३. आपला र्ति - प्रशमन फलाः संपदो ह्यतमानाम् - मराठी कहावत - मेघदूत १०५३ उत्तमपुरुषों की संपत्तियों, दुःखितों के दुःखों को शान्त करने के लिए ही होती हैं । ४. युजन्त्युत्तमसत्वा हि प्राणानपि न सत्पथम् । ६३ - कथासरित्सागर उत्तमपुरुष प्राणों का त्याग कर देते हैं, लेकिन मार्ग का नहीं । ५. प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः, प्रारभ्य विघ्नविता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना, प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ -भतृहरि नीतिशतक २७
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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