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________________ पांचवां भाग : पहला कोष्टक ५५ लोकनिन्दा एवं अपमान से डरकर भूट बोल जाना, संयम को छोड़ कर भाग जाना और आत्महत्या आदि कर लेना। (E) प्रदेषप्रतिसेवना- किसी के प्रवष या ई- से ( भूठा कलङ्क आदि लगाकर ) संयम की विराधना करना । यहाँ प्रडेप से क्रोधादि चारों कषायों का ग्रहण किया गया है। (१०) विमर्शप्रतिसेवना- शिष्यादि की परीक्षा के लिए ( उसे धमकाकर या उस पर झूठा आरोप लगाकर ) की गई विराधना । इस प्रकार दस कारणों से चारित में दोष लगता है । इन में से दर्प, प्रमाद और द्वेष के कारण जो दोष लगाए जाते हैं, उनमें चारित्र के प्रति उपेक्षा का भाव और विषयकाषाय की परिणति मुख्य है | भय, आपत्ति और संकीर्णता में चारित्र के प्रति उपेक्षा तो नहीं, किन्तु परिस्थिति की विषमता-संकटकालीन अवस्था को पारवार उत्सग की स्थिति पर पहुँचने की भावना है । अनाभोग और अकस्मात् में तो बनजानेपन से दोष का सेवन हो जाता है और विमर्श में चाहकर दोष लगाया जाता है । यह भावी हिताहित को समझने के लिए है । इसमें भी चारित्र की उपेक्षा नहीं होती। (३) आलोचनादाता के आठ गुण.... अहि ठाणेहि सम्पन्ने अरणगारे अरि हइ आलोयणं पडिच्छ
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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