SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वक्तृत्वकला के बीज त्तए, तंजहा-आयारवं, आहारवं, बबहारवं, उन्बीलए, पकुन्वए, अपरिस्सात्री निज्जवर अवायदंसी । -भगवती २५७ तथा स्थानात मा६०४ आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना सुनने के योग्य होता (१) आचारवान–ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार, एवं बीर्याचार, जो इन पांचो आचारों से सम्पन्न हो। (२) आधारवान्—(अवधारणावान्) -आलोचक के बतलाए हुए दोपों को बराबर याद रग्व मनाने वाला हो, क्योंकि गम्भीर अतिवारों को दो या तोन बार सुना जाता है, एवं आगमानुसार उनका प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रायश्चित्त देते समय आलोचनादाता को आनोचव के दोषों का स्मरगा बरावर रहना चाहिए ताकि प्रायश्चित्त कम-ज्यादा न दिया जाए। (३) ध्यवहारवान्-आगम आदि पांचो व्यवहारों का ज्ञाता एव उचित विधि से प्रवर्तन कर्ता हो । मोक्षागिलाषी आत्माओं की प्रवृत्ति-निवृत्ति को एवं तत्कारणाभूत ज्ञान-विशेष को व्यवहार कहते हैं। -रमानाङ्ग ५।३।४२१ में व्यवहार के पाँच भेद किए गए हैं—(१) आगम-व्यवहार, (२) व त-व्यवहार, (३) आज्ञा-व्यवहार, (४) धारा व्यवहार, (५) जीत-व्यवहार ।1 १. लेपके द्वारा लिखी पुस्तक 'मोक्ष प्रकाश' पुंज १० प्रश्न 6 में इसका विस्तृत विवेचन देखिए ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy