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________________ साधुनों ने लिए बल्लाअमर १. यज्ज्ञानशीलतपसा • मुपग्रहं च दोषाणाम् । कल्पयति निश्चयेन, यत्तत्कल्प्यमकल्मवशेषम् ॥१४३।। यत्पुनरुपघातकर, सम्यक्त्वज्ञानशीलयोगानाम् । तत्कल्प्यमायकलप्यं, प्रवचनकुत्साकरं यच्च ॥१४४॥ किचिच्छुद्ध कल्प्य, मकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्ड: शय्या वस्त्र, पात्र वा भेषजाद्य वा ॥१४५।। देशं कालं पुरुष-मवस्थानुपयोगशुद्धिपरिणामान् । प्रसमीच्यभवति कल्प्यं, नैकान्तात्कल्पते कल्प्यम् ॥१४॥ तच्चिन्त्यं तद्भाष्यं, तत्कायं भवति सर्वथा यतिना । नात्मपरोभयवाधक-मिह यत्परतश्च सर्वाद्धम् १५४७|| - प्रशमरति जो ज्ञान, शील एवं तप को पुष्ट करता हुआ दोषों का निग्रह करता है, निश्चय-दृष्टि में साध के लिए वही कार्य कल्प्य (करने योग्य) है, योष अकल्प्य है ।। १४३ ।। जो सम्यक्त्व, ज्ञान, शील एवं योग का नाश करता है और वीतरागवाणी की निन्दा करनेवाला है, वह कार्य कल्प्य होने पर भी अकल्पनीय है ।। १४४ ।। आहार-शय्या-वस्त्र-पात्र-औपधि आदि द्रव्य भी देश, काल, पुरुष, अवस्था, उपयोग, शुद्धि और परिणाम की अपेक्षा से ही कल्प के योग्य होते हैं, एकान्तरूप से नहीं ॥१४५-१४६||
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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