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चौथा भाग : चौथा कोष्ठक
३२३ साधु को यही सोचना चाहिए, वही बोलना चाहिए और वहीं काम करना चाहिए, जो इहलोक-परलोक में सदा स्व-पर-उभय बाधक न हो ! ।। १४७ ।। आचेलक्कूद सिय, गिजायर-रामगिट किइकम्मे । बयजेठ-पडिक्कमण, मांस - पज्जोसवण - कप्पो ।।
–पंचास्तिकाय-विवरण १७ गाथा, ८-१० दास्तोक्त आचार व अनुष्ठानविशेष का नाम कल्प है । कल्प दस माने गए हैं—१ अचेलक, २ औ शिक, ३ शव्यातरपिण्ड, ४ राजपिण्ड, ५ कृतिकर्म, ६ व्रतकल्प, ७ ज्येष्ठकल्प + प्रतिक्रमणकल्प, ६ मासकल्प, १० पपणकरण, इन दमों कल्पों को निपिचतरूप से पालनेवाले साधु स्थितकल्पिक कहलाते हैं । ये प्रथम-अन्तिम तीर्थंकरों के समय में होते हैं ।१ शय्यातरपिण्ड, २ कृतिकर्म, ६ बत, ४ ज्येष्ठ-इन चार कल्पों को नियमितरूप से और शेष छः हों को यथासंभव पालनेवाले साधु अस्थितकल्पिक कहलाते हैं- ये महानिदेहक्षेत्र में तथा
बाईसं तीर्थंकरों के समय भरत-ऐरावत क्षेत्रों में होते हैं ! ३. छ कपस्स पलिमंथू पण्णत्ता, तं जहा-कुक्कइए संजमस्स
पलि मधू १, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिम) २, चक्खु. लोलए इरियाबहियस्स पलिम) , तितणए एसणागोयरस्स पलिमय १, इच्छालोलए मुत्तिमग्गस्स पलिम) ५, भुज्जो-भुज्जो नियाण करणे मोखमम्गस्रा पलिमयू ६, सम्वत्थ भगवता अनियाणया पसत्था।
___ - बृहत्कल्प ६।१३ तथा स्थानांग ६।५२६ साधु के आचार का मन्थन करनेवाले साधु कल्पपलिमन्थु कहलाते हैं। उनके छ: भेद हैं-१ कौकुचिक, २ मोखरिका, २, चक्षु लोलुप, ४ तिति णिक, ५ इच्छालोभिक, ६ निदानकर्ता ।