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________________ अठा भाग : दूसरा कोष्ठका वहीं तक गुणियों के गुण हैं और वहीं तक गुरुओं का गौरव है, जहाँ तक ये दूसरों के पास नहीं मांगते । मांगने पर गुण और गौरव दोनों नष्ट हो जाते हैं। ६. स्वार्थ धनानि धनिकात्प्रतिगृह्णतो य . ." दास्यं भजेद् मलिनता किभिवं, विचित्रम् । गृहन् परार्थमगि बारिनिधेः पयोऽपि, मनोऽप्रमति' सत्रलो.पि च कालिमानम् ।। -सुभाषितरत्नभाण्डागार, पृष्ठ ७७ अगिरी में मरने लिए भनो माग में मेले के मुद ए आलिमा छा जाती है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। दूसरों के लिए समुद्र का जल गने पर भी देखो ! यह मेघ काला हो जाता है । ७. एहि गच्छु ! पतोत्तिष्ट ! वद 1 मौनं समाचर ! एवमाशाग्रहास्तः, को दन्ति घनिनोथिभिः ॥ -हितोपदेश २।२४ इधर आजा, चला जा, बंट जा, खड़ा हो जा, गोल, चुप हो जा ! आगारूप ग्रह में अमित याचकों के माय धनिक लोग-ऐसे खेलते रहते हैं। ८. याचक की प्रभु से प्रार्थना- ... हे करतार करू अरजी अब, भूल लिखी मत काहू के टोटो । ऐसी लन्नाट लिने मत काहु के, मांगन जाय महीपति मोटो॥ तू अपनो वृध जानत है प्रभु ! मांगन से कछु और न खोटो। नु बलि के जव द्वार गयो तब, यावन आंगल हो गयो छोटो ।। __-भाषाश्लोकसागर ६. मंगने से कोई गली छानी कानी । है लायो मांगन्तांग, तु ल ग री टांग। - राजस्थानी कहावत
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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