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________________ ७ P १. न सुखाय सुखं यस्य दुःखं दुःखाय यस्य नो । अन्तर्मुखमतेयस्य स मुक्त इति उच्यते ॥ मुक्त आत्मा — योगवाशिष्ठ ६।२/१६६।१ जो अन्तर्मुखी बुद्धिवाला मुख को सुख एवं दुःख को दुःख नहीं मानता. वह 'मुक्त' कहलाता है । २. नोदेति नास्तमायाति सुखे दुःखे मुखप्रभा । यथाप्राप्तस्थितर्यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते । १५२ - योगवाशिष्ठ ।१६२१ जो कुछ प्राप्त हो उसी में प्रसन्न रहनेवाला वह व्यक्ति जीवनमुक्त कहलाता है, जिसकी सुखकान्ति सुख में बढ़ती नहीं एवं दुःख में घटती नहीं 1 ३. अस्तुति निन्दा नांहि जहिं, कंचन- लोह समान । कहे नानक सुन रे मना । ताहि मुक्त तू जान || ¤
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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