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________________ वक्तृत्वकला के मीज १४. गवादीनां पयोऽन्येद्य, सद्योवा जायते दधि । क्षीरोदधेस्तु नाद्यापि, महतां विकृतिः कुतः ।। —देवेश्वर गाय आदि का दूध दूसरे ही दिन दही बन जाता है, किन्तु क्षीर-समुद्र का . जल आज तक दही नहीं बन सका ; क्योंकि बड़ों में विकार नहीं आता । १५. महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः । -शिशुपालवध २।१३ महान्पुरुष स्वभाव से ही मितभाषी (कम बोलनेवाले) होते हैं। १६. महापुमांसो गर्भस्था, अपि लोकोपकारिणः। --त्रिषष्ठि-शसाकाषचरित्र २।२ महापुरुष गर्भ में होते हुए भी लोकोपकारी होते हैं । १७. बड़े सनेह लघुन पर करहीं, गिर निज सिरन सदा तृन धरहीं। निजगुन श्रवन सुनत सकुचाहीं, परगुन सुनत अधिक हषाहीं ।। --रामचरितमानस १८. दोषाकरोपि, कुटिलोपि कलङ्कितोपि, मित्रावसानसमये विहितोदयोपि । चन्द्रस्तथापि हरवल्लभतामुपैति न ह्याश्रितेषु महतां गुण-दोषचिन्ता ॥ -चन्वचरित्र, पृष्ठ ७५ चन्द्रमा दोषा-रात्रि का करने वाला है, कुटिल है, कलसहित है, मित्रसूर्य के अस्त होने पर उदय होनेवाला है। फिर भी महादेव को प्रिय लगता है ; क्योंकि महापुरुष आश्रितों के गुण-दोषों का विचार नहीं करते।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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