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वक्तृत्वकला के बीज
११. सरीरमाहु नावत्ति, जीबो बुच्चइ नाविओ। संसारो अन्नवो बुत्तो, जं तरंति महेसियो ।।
-उत्तराध्ययन २३१७३ शरीर नान है, जीव नाविक है, संसार समुद्र है, इससे महर्षि
लोग ही पार तरते हैं। १२. संतोषः साधुसङ्गश्च, विचारोऽथ शमस्तथा । एत एव भवाम्बोधा-वुयायास्त रणे नृरणाम् ||
-योगवाशिष्ठ २१२॥ संतोष, साधुसंगति, मद् विचार और क्रोम आदि कषायों का गगन-से ही के जिस ना गम से सरने उपाय हैं ।