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________________ वास्यकला के बीज ५. अभिलाषापनीतं यत्, तज्ज़ यं परमं पदम् -मोक्षाष्टक अशा, तृष्णा, मूर्छा आदि सभी प्रकार की विकृत भावनाओं का जहाँ अभाव है, वह परमपद मोक्ष है । अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्त स्तमाहः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते, तहाम परमं मम || --गीता मा२३ जो भाव अव्ययत एवं अशर है, उसे परमगति कहते है । जिस सनातन-अव्ययत भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापिस संसार में नहीं आते, वह मेरा परमधाम' है ! ७. न तद् भासयते सूर्यो, न शशाङ्को न पावकः । यद् गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम ।। -गीता १५१६ जिंग स्वयं प्रकाशमय परमपद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा एवं अग्नि प्रकाशित कर सकते है तथा जिस पद को पाकर मनुप्य पुनः संसार में नहीं आते, वह मेरा परमधाम है। ८. संसार भाड़े का घर है । वह समय होने पर सबको (चाहे देवता भी हों) खाली करना ही पड़ता है । मुक्ति अगना निजी घर है, जहाँ निवास करने के बाद कभी निकलना नहीं पड़ता।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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