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चौथा भाग : चौथा कोष्ठक
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सम्वत् १५४४ में २४ जेठ को इनका विवाह मूलचंदजी की सुपुत्री सुलक्षणा के साथ हुआ, जिससे इनके दो पुत्र (बावा श्रीचन्द्र और बाबा लक्ष्मीदास) हुए।
मोधीखाने में एक दिन आटा लोलते समय एक-दो-तीन आदि कहते-कहते जब तेरह का नाम आया तो "तेरा-तेरा" ही कहते गगे (हे प्रभो ! मैं तेरह हूं) और सारा आटा तोल दिया । मोदीखाने का कार्य छोड़कर धर्मप्रचार में लग गये।
सं. १६५४ में इन्होंने देशाटन प्रारम्भ किया। इनकी चार यानाए विशेष प्रसिद्ध है(१) पूर्व में हरिद्वार, देहली, नैमिषारण्य, अयोध्या, प्रयाग, काशी यावत् जगन्नाथपुरी। (२) दक्षिण में सेतुबन्ध-रामेश्वर एवं सिंहल द्वीप । (३) उत्तर म सिक्किम, भूटान और तिब्बत । (४) पश्चिम में रूम, बगदाद, ईरान, काबुल तथा बिलोचिस्तान होते हुए मुसलमानों के प्रसिद्ध तीर्थ मक्का पहुंचे। सभी जगह वाहेगुरु (परमात्मा) की अनन्य उपासना का उपदेश दिया । मक्के में एक दिन ये काबे की तरफ पैर करके सो गये। जब काजी ऋद्ध, हुआ तो ये बोले-जिधर, अल्लाह न हो, मेरे पैर उधर कर दीजिए। काजी ने जिघर को इनके पैर फेरे काबा भी उधर ही फिर गया । २५ वर्ष भ्रमण करने के बाद गुरु नानक कारपुर में रहकर धर्मप्रचार करने लगे।
सं० १५६६ आसोज सुदी १० में इनका परलोकगमन' हुआ । उस समय इनकी आयु लगभग ७० वर्ष की थी ।
अन्तिम संस्कार के समय हिन्दू और मुसलमानों में विवाद खड़ा हो गया। जब वस्त्र उठाकर देखा तो इनका