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पांचवां भाग : पहना कोपटक
(१०)पाराञ्चिकाह
जिस महादोष की शुद्धि पाराञ्चिक अर्थात वेष और क्षेत्र का त्यागकर महातप करने से होती है, उसके लिए वैसा
करना पाराञ्चिकारी-प्रायश्चित्त है। स्थानात ५२१५३६८ में पाराञ्चिक-प्रायश्चित के पांच कारण कहे गए हैं, यथा-- (१) गण में फूट डालना, (२१ फूट डालने के लिए तत्पर रहना, (३) साधु आदि को मारने की भावना रखना, (४) मारने के लिए छिद्र देखते रहना, (५) बार-बार अमयम के स्थानरूप सावध अनुष्ठान की पूछताछ करते रहना अर्थात् अङ्गुष्ठ-कुङ्य आदि प्रश्नों का प्रयोग करना, (इन प्रश्नों से दीवार या अंगूठे में देवता बुलाया जा सकता है । ) इन पाँच कारणों के सिवा साध्वी या राजरानी का शीलभत करने पर भी यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसकी शुद्धि के लिए छः मास में लेकर बारह वर्ष तक गण, साधुवेष एवं अपने क्षेत्र को छोड़ कर जिनकल्पिकसाधू की तरह कठोर तपस्या करनी पड़ती है एवं उक्त कार्य सम्पन्न होने के बाद नई दीक्षा दी जाती है। टीकाकार कहता है कि यह महापराक्रमवाले आचार्य कोही दिया जाता है। उपाध्याय के लिए नौवें प्रायश्चि स तक और सामान्य साधु के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का विधान है । __ यह भी कहा गया है कि जब तक चौदह-पूर्वधारी एवं बजऋषभ-नाराचर्सहननवाले साधु होते हैं, तभी तक ये दसों प्रायश्चित्त रहते हैं । उनका विच्छेद होने के बाद केवल आठ प्रायश्चित्त रहते हैं, अस्तु !