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________________ ४४ वक्तृत्वकला के बीज तपाई-प्रायश्चित कहलाता है । इस प्रायश्चित्त में निर्विकृतिआयम्बिल-उपवास-बेला-पांच दिन दस-दिन-पन्द्रह दिन मास चार मास एवं छः मास तक का तप किया जाता है । (७) छेदाह दीक्षाय वि का छेद करने से जिस दोष की शुद्धि होती है, उसके लिये दीक्षापर्याय का अंदन करना छेदाह-प्रायश्चित्त है । इसके भी मासिक, चातुर्मासिक आदि भेद हैं । सपरूप प्रायश्चित्त से इसका काम बहुत कठिन है, क्योंकि छोटे साधु सदा के लिए बड़े बन जाते हैं। जैसे-किसी ने छेदरूप चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लिया तो उसकी दीक्षा के बाद चार महीनों में जितने भी व्यक्ति दीक्षित हुए हैं, वे सब सदा के लिए उससे बड़े हो जायेंगे, क्योंकि उसका चार मास का साघुगना काट लिया गया । (८) मूलाई जिस दोष को शुद्धि चारित्रपर्याय को सर्वथा श्वेद कर पुनः महावतों के आरोपण से होती है, उसके लिए वैसा करना अर्थात् दुवारा दीक्षा देना मूलाई-प्रायश्चित्त है [मनुष्यगाय-भैस आदि की हत्या, हो जाए ऐसा झूठ, शिष्यादि की बोरी एवं अहाच य-भङ्ग जसे महाम् दोषों का सेवन करने मे उक्त प्रायश्चित्त आता है ] (5) अनवस्थाप्याह जिरा दोष की शुद्धि संयम म अनवस्थापित-अलग होकर विशेष तप एवं गृहम्य का वेष घारकर फिर से नई दीक्षा लेने पर होती है, उसके लिए पूर्वोवत कार्य ३.र.न। अनवस्थायाई प्रायश्चित्त है।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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