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________________ १८ १. आ अभिविधिना सकलदोषाणां दशना आलोचना | मर्यादा में रहकर विकार से अपने आगे प्रकट कर देने का नाम आलोचना है । आलोचना लोचना-गुरुपुरतः प्रका - भगवती २५७ टीका दोषों को गुरु के २. छत्तीसगुण समन्नागएरण, तेवि अवस्कायव्वा । परसक्खिया विसोहि मुट्ठु वि ववहारकुसले || जह सुकुसलो वि बिज्जी, अन्नस्स क इ अत्तणां वाहि । विज्जुवएसं सुच्चा, पच्छा सो कम्ममायर | - गच्छाचार प्रकीर्णक १२-१३ आचार्य के छत्तीसगुणयुक्त एवं ज्ञान-क्रिया असवहार में विशेष - निपुण मुनि को भी पाप की शुद्धि परसाक्षी से करनी चाहिए । अपने-आप नहीं । जैसे— परमनिपुण बंध भी अपनी बीमारी दूसरे वैद्य से कहता है एवं उसके कथानुसार कार्य करता हैं । ३. आलोयायाएवं माया नियारणमिच्छादसा सल्ला मोक्स्खमग्ग-विग्धारणं अरांत संसारवड्ढणाणं उद्धरणं करे, उज्जुभावं च जरणयइ । उज्जुभावपडिवन्ने वि य णं जीवे । अमाई इत्थीवेयं नपुंसगवेयं च न बंधइ, पुम्वबद्ध च निज्जरेइ । r - उत्तराध्ययन २६।५ - ४६
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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