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________________ पाँचवा भाग : पहला कोष्टक ४७ आलोचना से जीव मोक्षमार्ग-विघातक, अनन्तसमार-वर्धक-ऐसे माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन शल्य को दूर करता है और ऋजुभाव को प्राप्त करता है। ऋजुभाव से मायारहित होता हुआ स्त्रीवेद और नसकवेद का बन्ध नहीं करता । पूर्वबन्ध की निर्बरा कर देता है। ___४. उद्धरियसव्वसल्लो, आलोइय-निदिओ गुरुसरगो ! होइ अतिरेगल हुओ, ओहरियभारोव्व भारवहीं ॥ -ओनियुक्ति ८०६ जो साधक गुरुजनों के ममक्ष मन के ममस्त शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निन्दा (आत्मनिन्दा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हल्की हो जाती है, जरो-मिर का भार उतार देने पर भारवाहक । ५. जह बालो जपसो, कज्जमकज्ज च उज्जयं भवई । तं तह आलोएज्जा, माया-मविप्पमुक्को उ ॥ ___-ओधनियुक्ति ८०१ बालक जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरलभाव से कह देना है। इसीप्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ-आत्मा लोचना करनी चाहिये ।। ६. आलोयणापरिणायो, सम्म संपदिओ गुरुसगास । जइ अंतरो उ कालं, करेज्ज आराहो तह वि ।। -आवश्यकनियुक्ति ४ कृतपापों की आलोचना करने की भावना से जाला हुआ व्यक्ति यदि बीच में मर जाए तो भी वह आराधक है।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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