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वक्तृत्वकला के बीज
७. लज्जाए गारवेण य, जे नालोयंति गुरु-सगामि । धपि सुय-समिद्धा, न हुने आराङ्गा हुंति ॥
___ -मरणसमाधिप्रकीर्णक १०३ लज्जा या गर्व के वश जो गुरु के समीप आलोचना नहीं करते
वे श्रुत से अत्यन्त समृद्ध होते हुए भी आराधक नहीं होते । ८. जो साधु आलोचना किए बिना काल कर जाता है, वह
आराधक नहीं होता एवं जो साधु कृतपापों की आलोचना करके काल करता है, वह संयम का आराधक होता है।
-भगवती १०२