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नादी हजारों लाखों लोगों के हृदयों को साप्यायित कर रहा है । महाकाल की तूफानी हवाओं में भी उनकी याणी की दिव्य ज्योति न बुझी है और न बुझेगी ।
हर कोई वाचा का धारक, वाचा का स्वामी नहीं वन सकता | वाचा का स्वामी ही वाम्मी या वक्ता कहलाता है । वक्ता होने के लिए ज्ञान एवं अनुभव का आयाम बहुत ही विस्तुत होना चाहिए । विशाल अध्ययन, मनन-चिंतन एवं अनुभव का परिपाक वाणी को तेजस्वी एवं चिरस्थाई बनाता है। बिना अध्ययन और त्रिपय की व्यापक जानकारी के भाषण केवल भपण ( भोंकना ) मात्र रह जाता है, वक्ता कितना हो चीखे चिल्लाये, उछले कूदे यदि प्रस्तावित विषय पर उसका सक्षम अधिकार नहीं है, तो वह सभा में हास्यास्पद हो जाता है, उसके थ्यक्तित्व की गरिमा लुप्त हो जाती है । इसलिए बहुत प्राचीनयुग में एक ऋषि ने कहा था- वक्ता शतसहस्रेषु' अर्थात् लाखों में कोई एक वक्ता
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होता है ।
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शतावधानी मुनिश्री धनराजजी जैनजगत् के यशस्वी प्रवक्ता है। उनका प्रवचन, बस्तुतः प्रवचन होता है | श्रोताओं को अपने प्रस्तावित विषय पर केन्द्रित एवं मन्त्रमुग्ध कर देना उनका सहज कर्म है। और यह उनका वक्तृत्व एक बहुत बड़े व्यापक एवं गंभीर अध्ययन पर आधारित है । उनका संस्कृत प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का ज्ञान विस्तृत है, साथ ही तलस्पर्शी भी ! मालूम होता है, उन्होंने पांडित्य को केवल हुआ भर नहीं हैं, किन्तु समग्रशक्ति के साथ उसे गहराई से अधिग्रहण किया है। उनकी प्रस्तुत पुस्तक 'वक्तृत्वकला के बीज' में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
प्रस्तुत कृति में जैन आगम, श्रीश्ववाङ्मय, वेदों से लेकर उपनिषद् ब्रह्मण, पुराण, स्मृति आदि वैदिक साहित्य तथा लोककथानक कहावतें, रूपक, ऐतिहासिक घटनाएं, ज्ञान-विज्ञान की उपयोगी चर्चाएँ - इस प्रकार श्रृंखलावरूप में संकलित हैं कि किसी भी विषय पर हम बहुत कुछ विचारसामग्री प्राप्त कर सकते हैं। सचमुच वक्तृत्वकला के अगणित बीज इसमें सन्निहित हैं। सूक्तियों का तो एक प्रकार से यह रत्नाकर ही है । अंग्रेजी