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साहित्य व अन्य धर्मग्रयों के उद्धरण भी काफी महत्वपूर्ण हैं । कुछ प्रसंग और स्थल सो ऐसे हैं, जो केवल सूक्ति और सुभाषिल ही नहीं है, उनमें विषय की तलस्पर्शी गहराई भी है और उसपर से कोई भी अध्येता अपने ज्ञान के आयाम को और अधिक व्यापक बना सकता है। लगता है. जैसे मुनिश्री जो बारू मय के रूप में विराट् पुरुष हो गए हैं । जहां पर भी दृष्टि पड़ती है कोई-न-कोई वचन ऐसा मिल ही जाता है, जो हृदय को छू जाता है और यदि प्रवक्ता प्रसंगतः अपने भाषण में उपयोग करे, तो अवश्य ही श्रोताओं के मस्तक झम उठेगे।
प्रश्न हो सकता है—'क्क्तृत्वकला के बीज' में मुनिश्ची का अपना क्या है ? यह एक संग्रह है और संग्रह केवल पुरानी निधि होती है। परन्तु मैं कहूंगा-कि कूलों की माला का निर्माता माली जब विभिन्न जाति एवं यिभिन्न रंगों के मोहत पुष्पों की माला बनाता है तो उसमें उसका अपना क्या है ? विखरे फूल, फूल हैं, माला नहीं । माता का अपना एक अलग ही विलक्षण सौन्दर्य है । रंगबिरंगे फूलों का उपयुक्त चुनाव करना और उनका कलात्मक रूप में संयोजन करना -- यही तो मालाकार का काम है, जो स्वयं में एक विलक्षण एवं विशिष्ट कलाकम है । मुनिश्नी जी वक्तृत्वकला के बीज में ऐसे ही विलक्षण मालाकार हैं। विषयों का उपयुक्त चयन एवं तत्सम्बन्धित सूक्तियों आदि का संकलन इतना शानदार हुआ है कि इस प्रकार का संकलन अन्यत्र इस रूप में नहीं देखा गया।
एक बात और–श्री चन्दनमुनिजी की संस्कृत-प्राकृत रचनाओं ने मुझे यथावसर काफी प्रभावित किया है। मैं उनकी विद्वत्ता का प्रशंसक रहा हूं। श्री धनमुनि श्री उनके बड़ भाई हैं—जब यह मुझे ज्ञात हुआ तो मेरे हर्ष की सीमाओं का और भी अधिक विस्तार हो गया । अन्न कैसे कहू कि इन दोनों में कौन बड़ा है और कौन छोटा ? अच्छा वही होगा कि एक को दूसरे से उपमित कर हूँ। उनको बहुश्रुतता एवं इनकी संग्रह-कुशलता से मेरा मन मुग्ध हो गया है।