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________________ १५८ वक्तृत्वकला के बीज (ग) चौदह रत्न-- १. एगमेगस्स गं रन्नो चाउरतं चक्कट्टिस चउदरस रयणा पन्नत्ता, तं जहाइत्थीरयणे, सेणाबइरयणे, गाहाबइयणे, पुरोह्यिरयणे, बड़ढइरयरणे, आसरयणे, हत्यि रयणे, असि रयणे, दण्डरयणे, चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरमणे, मरिंगरयग, कागिरि। रयण । -- समचार्याग १४ जन सिद्धान्तानुसार प्रत्येक चत्रावर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं। उनके नाम-(१) स्त्रीरत्न (२) सेनापति रत्न (३) गाथापति रत्न (४ पुगेहितरत्न (५) वड़कि रत्न (६) अस्वरन (७) हस्तिरन (८) आसरस्न (E) दण्डरत्न (१०) चत्ररत्न (११) छत्ररन (१२) चर्म रत्न (१३) मणिरत्न (१४) काक्षिणी रहा । उपरोक्त चौदह रत्न अपनी-अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होते हैं । इसीलिए ये रत्न कहलाते हैं । इन चौवह रत्नों में से पहले के साप्त रत्न पञ्चेन्द्रिय हैं । भेष सात रत्न एकेन्द्रिय गृथ्वीकायमय हैं । २. लक्ष्मीः कौस्तुभ-पारिजातक-सुग धन्वन्तरिश्चन्द्रमा, गावः कामघा सुरेश्वरगजो र मादिदेवाङ्गनाः । अश्वः सप्तमुखः सुधा हरिधनः शङ्को दिप चाम्बुधे, रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिनं वायु: सदा मङ्गलम् ।। (३) लक्ष्मी (२) कौस्तुभमणि (३) कल्पवृक्ष (४) मदिरा (५) धन्वन्तरि . वैद्य (६) चन्द्रमा {७) कामधेनु गाय (८) ऐरावत हाथो (६) रम्भामआदि अप्सरा (१०) सात मुंहबाला उच्चश्रवा घोड़ा (११) अमन (१२) विष्ण-धनुष (१३) गन (१४) विष-वे चौदह रत्न सदा मंगल करें । (मागवतादि पुराणों के अनुसार जब देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया था तब उसमें से उपरोक्त १४ रत्न निकले थे ।)
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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