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आ स्म नि वे द न 'मनुष्य को प्रकृति का बदलना अत्यन्त कठिन है' यह मूक्ति मेरे लिए सवा सोलह आना ठीक साबित हुई । बचपन में जब मैं कलकत्ता-श्री जनेश्वेताम्बर-तेरापंथी-विद्यालय में पढ़ता था, जहाँ तक याद है, मुझे जलपान के लिए प्रायः प्रतिदिन एक आना मिलता था। प्रकृति में संग्रह करने की भावना अधिक थी, अतः मैं खर्च करके भी उसमें से कुछ न कुछ बचा ही लेता था । इस प्रकार मेरे पास कई रुपये इकाट्ठे हो गये थे और मैं उनको एक डिब्बी में रखा करता था ।
विक्रम संवत् १६७६ में अचानक माताजी को मृत्यु होने से विरक्त होकर हम (पिता श्री केवलचन्द जी, मैं, छोटी बहन दीपांजी और छोटे भाई चन्दनमल जी) परमकृपालु श्री कालुगणीजी के पास दीक्षित हो गए। यद्यपि दीक्षित होकर रुपयों-पैसो का संग्रह छोड़ दिया, फिर भी संपत्ति नहीं छूट सकी । वह धनसंग्रह से हटकर ज्ञानसंग्रह की ओर झुक गई। श्री कालुगणी के चरणों में हम अनेक बालक मुनि आगमयाकरण-काव्य-कोष आदि पढ़ रहे थे । लेकिन मेरी प्रकृति इस प्रकार की बन गई थी कि जो भी दोहा-छन्द-श्लोक-ढाल. व्याख्यान-कथा आदि सुनने या पढ़ने में अच्छे लगते, मैं तत्काल । इन्हें लिख लेता या संसार-पक्षीय पिताजी से लिखवा लेता । फलस्वरूप उपरोक्त सामग्री का काफी अच्छा संग्रह हो गया । उसे देखकर अनेक मुनि बिनोद की भाषा में कह दिया करते
कि "धन्न तो न्यारा में जाने की (अलग विहार करने को) स्यारी कर रहा है।" उत्तर में मैं कहा करता-"क्या आप गारंटी
सकते हैं कि इतने (१० या १५) साल तक आचार्य श्री हमें अपने साथ हो रखेंगे ? क्या पता, कल ही अलग बिहार करने