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________________ वक्तृत्वकला के बीज द्वारा निन्यप्रवचन से हटने के लिए बाध्य किये जाने पर, निग्रंथप्रवचन में शङ्का, काक्षा, विचिकित्सा से रहित, अर्थअशय को पाकर, ग्रहणकर, पूछकर निश्चय करनेघाने, जानने वाले, वे अस्थि-मज्जा में निर्गन्थ-प्रवचन के प्रेम से रंगे हुए, उनका कहना है कि-''आयुष्मन् ! यह निर्गन्धप्रवचन ही अर्थ है, परमार्थ है, इसके शिवा शेष व्यर्थ है ।" उनके गृह-द्वारों की अर्गला खुली रहती है अर्थात साधुओं के लिए उनके द्वार खुले रहते हैं । वे दूसरे के अंतःपुर. या घर में प्रवेश करने की लालसा नहीं रखते । वे चउदस, आठम, अमावस और पुनम के दिन प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् पालन करते हैं । श्रमण- निन्थ को मिरवय, शुषणीय वान-पान, मया-गुलवास, वस्त्र पात्र, दवाई, पाट-बाटिए आदि देते हैं और बहुत से शीलयत, गुणवत, विरमणयन, प्रत्यारूयानव्रत, पौषध-उपवास आदि ग्रहण किए हुए तप कर्मों के द्वारा आत्मा को भावित करते रहते हैं । इस प्रकार बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक अवस्था का पालन करके, रोगादि बाधायें उत्पन्न होने या न होने पर, अनदान करके और आलोचना प्रतिनमय करके. शांति से मर कर देवलोक में महद्धिक, महा धुनिवाले पव महामस्तो देवता होते हैं ।। ३. धम्मरयणस्पजोमो, अक्हो हवन पगइसोम्भो। लोनिया अक्कू], भीम असो मुदक्खिनो । लज्जालुओ दयाल, मझत्थो साम्मदिट्टी गुगा रागी । सकह समक्खजुत्तो, सुदीदगी बिनसन्न । बुड्ढाणगो विणीत्रो, कयन्नुभो पहिअत्थ का रा य । तह चब लद्धलक्खो, एगवीसगुणगो हबइ सड्ढो । —प्रबचन सारोद्धार २३६ गाथा १३५६ से १३५८ मशभाषित धर्म के प्रोग्य धावक के २१ गुण कहे हैं। यथा
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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