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________________ १५१ वकला के बीज धन का दान एवं उपभोग करना चाहिए, किन्तु संग्रह नहीं । देखो ! संचितधन (म) दूसरे लोग हर लेते हैं । ७. त्यागाय श्रयसे वित्त वित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स प ेन, स्वास्यामीति विलम्पति इष्टोपदेश - १६० जो दान और पुण्य के लिए धन का संचय करता है, वह फिर नहा लूंगा – ऐसे सोचता हुआ अपने शरीर को कीचड़ से लिप्त करता है । ८. मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- माया के मालिक और माया के गुलाम । मालिक माया में आसक्त नहीं होते एवं उसके लिए अन्याय नहीं करते । गुलाम माया में फँस जाते हैं एवं उसके लिए अन्याय करते नहीं डरते | ६. महाजन की धन रोहों में, को - राजस्थानी कहावत X 1 : ן
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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