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________________ पांचवां भाग : दुसरा कोष्टक जाचवा काज जिशा-जिण विधे, हुलस हाथ हे धरै । दुभर पेट भरवा भणी, करम एह मानव करें ||१|| रचरण प्रवहा रचे, वोह नर बाहण बसे, अथग मीर - आगमे, पुर जोखा में पंसे । किणहिक वाय कुवाय, कोर कालेजा कंप, उत्थ न को आधार, जीव दुख किरण सू जपे । जल में नाव डूब जरं, विरलो कोइक ऊबर । दुभर पेट भरवा भगी. नरम एट सान? कौर राते परघर जाय, गीत गाव गीत रए । रावण का रोबगगां अधिक सीखे ऊगेरग ।। खांस बैठो कन्त, मल्ह पर-मंदिर जावै । ऊँची चड़ आवास, पुरुष पारका मल्हावै ।। ऊंचो साद तागें अधिक, एक पईसा कारें । दुभर पेट भरवा भणी, करम एह मानव करें ॥३॥ ५. सौ मानी कोठी भराम पग सवा सेर नी कोठी नुं पुरू न थाय। ६. दरिया नुं ताग आवे पण छः तसु छाती नु ताग न आवै । ७. पेट माटे लका जर्बु पड़े। ८. पेट भयुं एटले पाटग भर्यु । ६. आप जम्यां एटले जगत जम्यां । १०. सौर्नु हाथ मोमणी बले। -गुजराती कहावते
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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