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________________ ६६ वक्तृत्वकला के बीज विचक्षण पुरुष अपवित्रता की अवस्था में भोजन न करें । अतिलोलुपता से न खाए तथा तर्जनी ( अंगूठे के पासवाली अंगुली को ऊंचा करके भी न खाए 1 ३. उष्णं स्निग्धं मात्रावत् जो वीर्याविरुद्ध इष्ट देशे, इष्ट सर्वोपकरणं नाति तं नातिविलम्बितं अजलान् अहसन् तन्मना भुजीत | आत्मानमभिसमीक्ष्य सम्यक् । - चरकसंहिता, विमानस्थान १।२४ उष्ण, स्निग्ध, मात्रापूर्वक पिछला भोजन पच जाने पर, वीर्य के अविरुद्ध, मनोनुकूल स्थान पर अनुकूल सामग्रियों से युक्त, न अतिशीघ्रता से, न अतिविलय से, न ही बोलते हुए, न ही हंसते हुए, आत्मा की शक्ति का विचार करके एवं आहार द्रव्य में मन लगाकर भोजन करना चाहिए। ४. ईर्ष्या-भय-काधपरिक्षतेन, लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीड़ितेन । द्वेषयुक्तेन च सेव्यनान भन्नं न सम्यक् परिणाममेति । - सुश्रुत ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, रोग, दीनना, एवं ट्रंप इन सबमे युक्त मनुष्य द्वारा जो भोजन किया जाता है, उसका परिणाम अच्छा नहीं होता । ५. विरोधी आहार का सेवन नहीं करना चाहिए, इसके देशविरुद्ध कालविरुद्ध, अग्निविरुद्ध, मात्राविरुद्ध कोष्ठविरुद्ध, · अवस्थाविरुद्ध एवं विधिविरुद्ध आदि अनेक भे हैं । - चरकसंहिता सूत्रस्थान २७ ६. साथ न खाने के खाद्य पदार्थ (१) गर्म रोटी आदि के साथ दही । (२) पानी मिला दूध और घी ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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