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________________ चौवा भाग पहला कोष्ठक 1 स्वर पूरा बैठे नहीं, मटकै भाव जग्यां बिना तुक्का मिलण न पाय || ५. कूर्पासकेनार्धतिरोहितो तो फिर कविता नांय ॥ J - सावधानी से समुद्र १८।२१-२२ कुत्री, रम्यौ रमण्याः कविताक्षराणि च । ३५ अर्धं निगूढानि सुशोभितान्यलं, नात्यन्तगूढानि न वा स्फुटानि ॥ कंचुकी से आधे ढके हुए स्त्री के स्तनवत् कविता के अक्षर भी अर्धाच्छादित ही शोभा देते हैं । अत्यन्त गूढ़ अथवा अत्यन्त स्पष्ट अच्छे नहीं लगते । ६. कविता ऐसी चाहिए, ज्यों कांसे का थाल । तनिक ठेस से अति सरस ध्वनि गंजे चिरकाल || ७. वास्तविक हार्दिकता से पैदा हुई कविता हमेशा शरीफ और ऊंची बनती है । - ऐ. ए. हाफकिन्स ८. किसी उत्कृष्ट कवि की कविता भी यदि रामनाम से रहित हो तो नग्न स्त्री की तरह वह शोभा नहीं देती । - रामचरितमानस ६. पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः पुराना होने से सभी काव्य अच्छा नहीं होता और नया होने मात्र से खराब नहीं होता । अतः सत्पुरुष दोनों की परीक्षा || - मालविकाग्निमित्र नाटक १२
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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