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________________ वक्तृत्वकला के बीज (ड) बांस कयो--मनख ! म्हारै फूल लागे न फल फर, भने । किस्य लालच जड़ा-मूल स्यू काट है ? मिनख बोल्यो--- मुणहोण री थोथी ऊँचाई म्हारै' स्यू कोनी देखीजै । (ढ) कुम्हार काचे घड़े ने चाक स्यू उत्तार' र न्यावड़े री उकलती भोभर में ल्या नाख्यो । घड़ो रो' र बोल्योविधाता आ काई करी ? कुम्हार हंस' र कयो-पणि हारी र सिर पर इयां सीधो ही चढ़णों चाचै हो के ? (ण) नोमड़े रो रूख मतीरै री चेल में हँस' र कयो-म्हारो - टोखी तो आभै नैं नावई है' रतू' धूल पर ही पसर्योड़ी पड़ी है ? मतीरै री बेल बोली, पैली थार फल कानी देख, पछै म्हारै स्यूँ बात करीजे ! –'गलगधिया' पुस्तक से ।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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