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१. एतदात्मविज्ञान' पाण्डित्यम् ।
आत्मा का ज्ञान
- राज्यक उपनिषद ३५१
वस्तुतः आत्म-ज्ञान ही पाण्डित्य है । २. अज्ञातस्वरूपेरण, परमात्मा न आत्मैव प्राग् विनिश्जेयोः विज्ञातुं पुरुषं परम् ॥
बुध्यते ।
- ज्ञानार्णव, पृष्ठ ३१६
अपने स्वरूप को नहीं जाननेवाला परमात्मा को नहीं जान सकता । अतः परमात्मा को जानने के लिए पहले अपनी आत्मा को हो निश्चयपूर्वक जानना चाहिए।
३. वाखरी शब्दभरी शास्त्र-व्याख्यानकौशलम् । दुय विदुषां तद्वत् भुक्तये न तु मुक्तये ॥ अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला । विज्ञापि परे तत्त्थे, शास्त्राधीतिस्तु निष्फला
- विवेकचूडामणि- ६०-६१
आत्मज्ञान के बिना विद्वानों को वाक्कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्यान को कुशलता और विद्वत्ता - ये सब चीजें भोग का ही कारण हो सकती हैं, मोक्ष का नहीं ॥ ६०॥
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आत्मतत्त्व न जानने पर शास्वाध्ययन व्यर्थ हैं तथा उसे जान लेने पर मी शास्त्राण्ययन व्यर्थ हूँ ॥ ६१ ॥
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