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________________ * ४. अणोरणीयान्महतो महीयानाः। तमस्तु पश्यति वीतशोको, धातुप्रसादान्महिमानमीशम् ॥ --कठोपनिषत् २।२० आत्मा अणु से भी अणु (छोटी) है और महान से भी महान ( बड़ी ) है । प्रत्येक प्राणी के भीतर छिपी है । जो निरीह है, उसे अपने मन और इन्द्रियों की शक्ति से इसके दर्शन होते हैं। ५. रागद्वेपादि कल्लोलं- रलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तस्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ॥ -समाधिशलक ३५ राग-द्वपादि की कल्लोलों से जिसका मनरूप जल चंचल नहीं होता; वहीं व्यक्ति आत्मा के तत्व को देख सकता है, दूसरा नहीं । ६. नष्टं पूर्वत्रिकरपे तु यावदन्यस्य नोदयः । निर्विकल्पवचतन्य, स्पष्टं तावद्विभासते ॥ कला के बी - लघुवाक्यवृत्ति पूर्व विकल्प नष्ट होने के बाद, जब तक दूसरा विकल्प उत्पन्न नहीं होता, उम समय तक निर्विकल्प आत्मा स्वष्टरूप में दृष्टिगोचर होती है । उपरतस्तितिक्षुः, ७. शान्ती दान्त समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पचति । -बुदारण्यक उपनिषद् - ४/४/२३ शम, दम, उपरति, तितिक्षा (श्रद्धा) तथा समाधानरूप षट्सम्पतियुक्त जिज्ञासु ही आत्मा का आत्मा मे दर्शन करता है । Xx
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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