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१. व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥ यजुर्वेद १९।३० व्रत (आचरण) से मनुष्य को दीक्षा अर्थात् उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है। दीक्षा से दक्षिणा यानी प्रयत्न की सफलता मिलती है। दक्षिणा से अपने जीवन के आदर्शो में श्रद्धा होती है । और श्रद्धा से मत्य की प्राप्ति होती है । २. ए वादिनं ।
- उत्तराध्ययन ५।२२
व्रत
साधु हो, चाहे गृहस्य हो, अले व्रतोंवाला स्वर्ग में जाता है । ३. व्रताभिरक्षा हि सतामलं क्रिया ।
व्रतों को शुद्ध पालना ही सत्पुरुषों का श्रृंगार है ।
४. व्रतों की विधि दुष्कर होने पर भी उसे पालने का प्रयत्न करें !
५. रत्नों के आभूषणों से भी व्रतों की विशेष सम्भाल रखो, अन्यथा वे दूषित होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँगे !
६. व्रत टूटने पर मनुष्य की शान नहीं रहती ।
७. टूटने के भय से व्रत मत छोड़ो !
जैसे - जूओं के भय से वस्त्र पहनना नहीं छोड़ते,
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