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________________ ३२० वक्तृत्वकला के बीज से कोह-लोह-भय-हास - माणवो, न हासमाणे वि गिरं बइज्जा ॥५४॥ -दशकालिक अध्ययन ७ उसी प्रकार सावध का अनुमोदन करनेवाले संदेह-युक्त अर्थवाली, जीवोपधात करनेवाली-ऐसी भाषा माधु क्रोध, लोभ भ्रमबदा अथवा दूसरों का हास्य करता हुआ भी न बोले । १५. ण लविज्ज पुठ्ठो सावज्ज-ण णिरढ़ ण मम्मयं । -उत्तराध्ययन ११२५ साधु पूछन नी सादायक का यो । नखत्त सुमिणं जोग, निमित्त मंत-भेराजं । गिहिणी तं न आइक्खे, भूयाहिगरणं पयं ।। –दशवकालिक ५१ नक्षत्र, स्वप्नफल, वशीकरणादि रोग निमित्त. मन्त्र और भेषज ये जीन हिंसा के अधिकरण है । अतः साधु इन सबका फलाफल गृहस्थ को न बताए। १७. तुमं तुमति अमणुम्नं, सब्बसो तं न वत्तए । - सूत्रकृतांग ११६२७ 'तू-तू'–जसे अभद्र शब्द कभी नहीं बोलने चाहिए । १८. नो वयणं फरुसं वइज्जा। -आचारांग २०१६ कठोर-कटु-वचन न वोले । १६. अणुचितिय वियागरे । -सूत्रकृतांग शहा२५ जो कुछ बोले-पहले विचार कर बोले । २०. जं छन्नं तं न वत्तव्वं । --सूत्रकृतांग १९२६ किसी की कोई गोपनीय जैसी बात हो, तो वह नहीं कहनी चाहिए।
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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