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संयम की दुष्करता
१. जावज्जीवमविस्समो, गुणाणं तु महभरो।
गुरुओ लोहमारुत्व, जो पुत्ता होइ दुबहो ॥३६।। वालुया कवले चेव, निरस्साए उ संजमे । असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउ तबो ।।३८।। अहीवेगंतदिट्ठीए, चरित्त पुत्त ! दुक्करे । जवा लोहमया चेव, चावेयवा सुदुक्करं ।।६।। जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउ होइ सुदुक्करा । तहा दुक्करं करेउ जे, तारुण्ण समणत्तणं ११४०॥ जहा भुवाहि तरि, दुक्करं रयणायरो। तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दमसागरी ॥४३॥
--उत्तराध्ययम १६ हे पुत्र ! इस संयम में जीवनपर्यन्तु विश्राम नहीं है । भारी मोहभार की तरह सदा गुणों का भार उठाना बहुत मुश्किल है ।। ३६ ।। बालुरेत के कवल के समान संयम निस्वाद है । तथा खङ्गधारा पर चलने के समान यह तय करना दुष्कर है ॥३८॥
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