SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा कोष्ठक पुस्तक-शास्त्र १. यस्माद् रागद्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्भ । संत्रायते च दुःखा-च्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ।। --प्रशमरति १८७ राग-द्वेष से उद्धत चित्तवालों को धर्म में अनुशासित करता है एवं इन्हें दुःख से बचाता है, अतएघ बह गत्पुरुषों द्वारा 'शास्त्र' कहलाता है (शास्त्र शब्द में दो धातुएं मिली हैंशाशु और बेङ्- इनका अर्थ क्रमशः अमुशासन' करना और रक्षा करना है 1) श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रम् । -सुभाषितरत्नमंजुषा शास्त्र सुनना ही कान का आभूषण है। आलोचनागोचरे ह्मणे शास्त्र तृतीयं लोचनं पुरुषाणाम् । -नीतिवाश्यामृत ५।३५ आलोचना योग्य पदार्थों को जानने के लिए शास्त्र मनुष्य का तीसरा नेत्र है। अनेक संशयोच्छेदि, परीक्षार्थस्य दर्शकम् । सर्वस्य लोचनं शास्त्र, यस्य नास्त्यन्ध एव सः ।। -हितोपदेश-प्रास्ताविका १० शास्त्र अनेक संशयों का नाश करनेवाला है, पिलो हुए अर्थ को ७.
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy