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________________ चौथा भाग: तीसरा कोष्टक ४. ॐ गिरि से जो गिरे, मरे एक ही बार । चरित्र गिरि से जो गिरे, बिगड़े जन्म हजार ॥ -आचार्य उमाशंकर ५. प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत, नरश्चरितमात्मनः । किं तु मेपशुभिस्तुल्यं, कि नु सत्पुरुपैरिति ॥ - शाङ्गधर चाहिए और मनुष्य को प्रतिदिन अपना आचरण देखना सोचना चाहिए कि मेरा आचरण पशुओं के समान कितना है और सत्पुरुषों के समान कितना है ? ६. मां जाति पुच्छ, चरणं च पुच्छ । कट्ठा हवे आरति जातवेदो । संयुक्तमिकाय १२७१६ जति मत पूछो, आचरण (कर्म) पूछो ! लकड़ी से भी आग पैदा हो जाती है । ७. क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । . यतः स्त्री-भक्ष्य-भोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखभाग् भवेत् ॥ ८. शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, वास्तव में क्रिया ही फल देनेवाली है, ज्ञान नहीं, क्योंकि स्त्री, भोजन और भोग का जानकार भी मात्र ज्ञान से सुखी नहीं होता, उसे क्रिया करनी ही पड़ती है । १७३ यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । चौषधमातुराणां सुचिन्तितं न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥
SR No.090530
Book TitleVaktritva Kala ke Bij
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanmuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages837
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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